लटक जरा मटक जरा, तू जुल्फ को झटक जरा,
ये बंदिशें ये बेड़ियाँ समेट कर पटक जरा ।
से कामिनी से कोमला से माधुरी से चंचला,
ये रूप तेरी वासना, ये रूप तेरी कैद है।
जो देह छूटना ही है, तो रूप क्या कुरूप क्या?
सौंदर्य काम वासना को धूल सा झटक जरा।
तू करती आ रही यकीं कि लज्जा तेरा अस्त्र है।
तू आइना समाज का, चरित्र तेरा शस्त्र है।
दमन ही जब हो झेलना तो अस्त्र क्या निरस्त्र क्या?
तू लाज- साज त्याग कर समाज को खटक जरा।
आंखों में जलती आग को आंसू बताना पाप है।
ये पंख हैं उड़ान, के, इनको छुपाना पाप है।
जब प्राण हैं शरीर में तो जी ना पाना पाप है।
सर पे खुला है आसमां, मदमस्त तू भटक जरा।
तू गिर जरा, तू उठ जरा, तू दौड़, तू रपट जरा,
ये बंदिशें ये बेड़ियाँ समेट कर पटक जरा।