छठा सर्द का अंधियारा, सुन्दर बसन्त जब आया,
खिली क्यारियां फूलों की, तितली ने पंख फैलाया।
कोने में एक फूल खिला था, लाल था जिसका रंग,
फूल ने छोटा बीज गिराया, खोल के अपने पंख ।
कोने में निर्जीव पड़ी थी, छोटी सी वो चीज,
सही समय की राह देखता नन्हा सा एक बीज।
धूल में जैसे लुप्त हो गई उसकी हर पहचान,
नव जीवन की आस लगाती नन्ही सी वो जान।
सूर्य का पलड़ा भारी हुआ, आकाश से बरसी आग,
आया गर्मी का मौसम और गया वसन्त का राग।
बीज ने मिट्टी में छुपकर देखा ये सारा खेल,
सूरज के सब अग्नि-बाण चुपचाप गया वो झेल।
फिर आया सर्दी का मौसम, बर्फ की बिछ गई चादर,
सन्नाटा हर और था छाया, वीराना था मंजर,
शांत रहा वो बीज मृदा में अपनी आंखें मूंद,
शीत लहर को सहता रहा वो पड़ा रहा मृत-रूप ।
सूरज की कुछ किरणों ने आकाश में ली अंगड़ाई,
हल्का हल्का ताप बढ़ा और शीतलहर गरमाई।
मिट्टी में जीवन सा जागा, हुआ सर्दी का अन्त,
नवजीवन आगोश में लेकर, फिर से आया बसन्त ।
सुन जीवन संगीत बीज ने खोली अपनी आँखें,
जुटा के अपनी पूरी ताकत लगा खोलने बाहें।
मिट्टी से फिर निकली फूटकर हरे रंग की धारा,
बीज के संघर्षों से उपजा नन्हा पौधा प्यारा।
कितना सुंदर था वो मंजर, नवजीवन, नवगीत,
हर मौसम को हरा बीज के धैर्य ने पाई जीत।
ठीक किया ए बीज जो तुमने कभी ना मानी हार,
धैर्य, परिश्रम, जिद से पाया जीवन का उपहार।