कछुए और खरगोश की कहानी हम सबने बचपन से ही सैकड़ों बार सुनी होगी। उसको दोहराने की यहाँ कोई ज़रूरत नहीं। मैं बात करना चाहती हूं इस बारे में कि इस कहानी से हमने क्या सीखा? यही ना कि धीरे-धीरे आगे बढ़ते रहने से एक दिन सफलता मिल जाती है? लेकिन क्या हमने सचमुच इस कहानी से यही सीखा?
अच्छा, चलिए इस बात को ऐसे कहते हैं: अगर हमको जीवन में चुनने का अवसर दिया जाए कि हम खरगोश बनना चुनेंगे या कछुआ? मैं इस बात का दावा कर सकती हूँ कि हममें से अधिकांश लोग खरगोश बनना चुनेंगे, तेज़ और चालाक। लेकिन हां, कहानी वाले खरगोश से थोड़ा ज़्यादा समझदार, ताकि रास्ते में रुकने की भूल ना करें। और शायद ही कोई ऐसा होगा जो कछुआ बनना स्वीकार करेगा, जो धीरे-धीरे लगातार चलते हुए मंज़िल पर पहुंचता है।
ऐसा इसलिए क्योंकि धीरे-धीरे आगे बढ़ना या धीरे-धीरे चीज़ों को सीखते रहना हमारे समाज में तारीफ के काबिल नहीं माना जाता। तारीफ होती है उसकी जो तेज़ है, शातिर है, बिलकुल खरगोश की तरह। धीमा होना तो बेवकूफी की निशानी है। और यही कारण है कि हम हमेशा मंज़िल की परवाह करते हैं, रास्ते की नहीं और कुछ हासिल करने की ज़्यादा परवाह करते हैं, सीखने की नहीं।
तो मेरी बात यह है कि हम स्कूलों में चाहे जितनी भी कछुए और खरगोश की कहानी सुनाकर अपने बच्चों से कछुए की तारीफ़ करें, हम कोशिश हमेशा उनको खरगोश बनाने की ही करते रहेंगे।