भारत में अभी दिवाली की तैयारियां चल रही हैं और इसलिए रह-रहकर मुझे घर की याद आ रही है। दिवाली की सफाई भी क्या सर-दर्दी भरा काम है। जब दिवाली पर घर की याद आती है तो आपको किसी एक चीज की याद नहीं आती, हर चीज याद आती है; सर्दी की तैयारी में बाहर निकले रजाई और गद्दे, धूल में सने हुए पंखे और पुराने मैल जमे हुए रसोई के डिब्बे। मुझे याद है कि मैं और भैया छत पर रजाई के सिनेमा हॉल बनाकर खेलते थे। मम्मी और पापा जब दिवाली की आरती बोलते थे तब हम आरती की धुन पर पागलों की तरह नाच रहे होते थे और मम्मी आरती गाते हुए हम दोनों को गुस्से में आँखें दिखा रही होती थी।
इन्हीं विचारों के बीच मेरे मन में एक सवाल आया, “मेरे जीवन में मम्मी- पापा, भैया-भाभी, और तनुल के अलावा कितने ऐसे लोग हैं जो हमेशा रहेगें ? और रहने का मतलब सिर्फ शादियों या होली-दीवाली के लिए मिलना नहीं, बल्कि सचमुच जीवन में होना। वैसे बचपन में मेरे जीवन में बहुत से लोग रहे, चाचा-ताऊ के बच्चे, पड़ोसी के बच्चे, रिश्तेदार और न जाने कौन- कौन। जब हम छोटे होते हैं, हमको लगता है कि ये सब तो यहीं हैं। कौन कहाँ ही जा रहा है। फिर हम धीरे- धीरे बड़े होते हैं। हम अपने जीवन में व्यस्त होते हैं, दूसरे शहरों में जाकर बस जाते हैं और सवाल पैदा होता है कि सचमुच में कितने ही लोग हैं जो रह जाते हैं ?
इस सवाल के साथ मेरे मन में एक छवि आती है। एक छोटी लड़की, अपनी ही अजीबोगरीब स्टाइल में सजकर (जिसको वो खुद बहुत बढ़िया समझ रही है), लोहे के एक भारी गेट को ज़ोर लगाकर खोल रही है। ये 10 साल की लड़की है, मेरी मासी की बेटी। दरअसल मैं, मम्मी और भैया कुछ ही समय के लिए पढ़ने के लिए जयपुर में जाकर एक किराए के घर में रहने लगे थे। हमें मुश्किल से वहाँ एक-दो हफ्ते हुए होंगे और वो हमसे मिलने दूसरे शहर आ गई क्योंकि उसे मेरी याद आ रही थी। वो एकमात्र इंसान है जिसे मैंने सच में एक बहन के रूप में जाना है।
वह मुझसे दस साल छोटी है। बचपन में लगभग 18 सालों तक मैंने उसे अपने सामने बड़े होते देखा है। मुझे याद है, उन दिनों जब उसने नया-नया ग्रीटिंग कार्ड बनाना सीखा था, चाहे कोई भी दिवस हो : मित्रता दिवस, स्वतन्त्रता दिवस, बहन दिवस, भाई दिवस, पिता दिवस और ना जाने क्या- क्या। मेरे पास एक कार्ड उसका जरूर आ पहुंचता था। कई बार ऐसा भी हुआ जब हम एक-दूसरे से बहुत दूर रहे, हफ्तों तक बात नहीं हुई क्योंकि हम अपनी-अपनी जिंदगी में व्यस्त थे, लेकिन वो बस वहाँ होती थी, कुछ भी करके। मैं रुड़की में PhD कर रही थी, वो मिलने आ गई। मेरा कॉन्वोकेशन था, भले ही आने वाले लोगों की गिनती बहुत कम थी, लेकिन वो वहां भी मौजूद थी। ऐसे भी पल आए जब मुझे लगा कि उम्र के साथ हम एक-दूसरे से दूर होते जा रहे हैं। लेकिन वो समय-समय पर अपने होने का एहसास कराती रही, चाहे जो हो जाए। मेरी शादी थी और मुझे जैसे- तैसे बस शादी का काम निपटाना था लेकिन वह अलग स्तर पर मेरी शादी के लिए उत्साहित थी। मुझे याद है, मेरी पूरी अव्यवस्थित शादी की तैयारी में बस एक ही चीज थी जो सबसे सुंदर और व्यवस्थित थी, उसकी सजाई हुई अंगूठी की थाल। मुझे समय के साथ ये लगता है कि चाहे कुछ भी हो जाए, वो हमेशा जुड़े रहने का रास्ता ढूंढ ही लेगी। मेरी एक बचपन की दोस्त के साथ भी कुछ ऐसा ही है; हम एक दूसरे को दो दशकों से जानते हैं, फिर भी वह हमेशा किसी न किसी तरीके से मुझसे जुड़ी रहती है।
अब जब मैं 35 के करीब हूँ और घर से दूर रहती हूँ, तो मुझे महसूस होता है कि हमारे लिए ये समझना जरूरी है कि कौन लोग हमेशा साथ रहेंगे और कौन नहीं। तो मेरा निष्कर्ष ये है कि हमारे जीवन में अनेकों प्रकार के लोग आते हैं। कुछ हमको दिखने में बहुत प्रभावित करते हैं, कुछ बहुत होशियार होते हैं और कुछ खूब हंसाते हैं। लेकिन उसने मुझे ये सिखाया कि कुछ लोग हमारी जिंदगी में हमेशा के लिए क्यों रह जाते हैं और कुछ क्यों नहीं। किसी के जीवन में डटे रहने के लिए किसी खास हुनर की जरूरत नहीं होती। बस एक साधारण सी इच्छा होनी चाहिए – बने रहने की। इससे फर्क नहीं पड़ता कि आप कितनी दूर हैं या समय के साथ कितना बदल गए हैं; जो मायने रखता है वो है एक-दूसरे की जिंदगी में रहने की इच्छा।